Friday 18 May 2012

रोगों से लाभ (Benefits of diseases)


इस विश्व में बहुत बड़ी संख्या ऐसे मनुष्यों की है, जिनकी यह एक मात्र धारणा नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि रोग हमारे दोस्त के समान होते हैं।
There are several people in this world who consider diseases as friend. It is not only a conception but also deep faith.

यही नहीं बल्कि कुछ लोगों का विचार तो यहां तक है रोग का होना मृत्यु का पेशखेमा होती है, किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है, रोग तो प्रकृति और माता का शुभाशीष और वरदान है अर्थात बीमार पड़ना हमारे शरीर के लिए ईश्वर का बड़ा वरदान है। वे व्यक्ति बहुत ही भाग्यशाली होते हैं जिनके शरीर में रोगों का आगमन होता है क्योंकि रोगों के आने से शरीर का संचित दूषित मल (जोकि विष बन चुका होता है) नष्ट हो जाता है। रोग हमारे शरीर के लिए सुधारक और दोस्त होते हैं न कि दुश्मन। रोग उत्पन्न होकर हमारे के किसी भाग या अंग के कमजोर होने को इंगित करता है कि इस भाग में विष एकत्र हो गया है। इसकी सफाई करनी चाहिए। हम जितनी शीघ्रता से रोग की चेतावनी पर ध्यान देंगे उतनी ही शीघ्र हमारा शरीर निरोगी हो जाता है। जिसके शरीर में यह चेतावनी नहीं मिलती है उनके शरीर की जीवनीशक्ति क्षीण होती जाती है।
Not only this but appearance of disease is the hint of death but it is not truth. Diseases are the boon of God AND Mata. Falling ill is a great boon of God for us. All the people are very lucky who fall ill because polluted stool (which has been become poison) of the body destroys at the appearance of diseases. Diseases are reformer and friends not enemy for our body. Diseases inform us that affected area is weak and poison has been gathered there. There is need of cleanliness of the poison. We will become healthy soon if we pay attention on the warning of disease soon. Vital power of those people is weak who do not fall ill.
रोग और रोगी की चिकित्सा-
            किसी रोग की प्राकृतिक चिकित्सा करने के पूर्व प्रत्येक सम्बंधित व्यक्ति को प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में जानकारी होनी चाहिए। यदि रोगी उसका ईमानदारी से पालन करे तो रोग को दूर होने में देर नहीं लगती है।
विशेष :
प्राकृतिक चिकित्सा ``जीवन विज्ञान`` होती है। जीवन जीने की एक विशेष कला होती है जिसका ज्ञान रखने वाले को बहुत जल्द इसका लाभ मिलता है। जो लोग इस कला के अभ्यास के बिना ही इस चिकित्सा से लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें अधिकतर निराशा ही हाथ लगती है। ईश्वर की प्रार्थना, संयम, सदाचार, मानसिक शक्ति का उपयोग, आवश्यकता अनुसार विश्राम, प्रसन्नता, मनोरंजन तथा गहरी नींद के बिना कोई भी रोगी ठीक नहीं हो सकता है बल्कि उसका रोग बढ़ जाता है। इसलिए उपर्युक्त नियमों को प्राकृतिक चिकित्सा का ही एक अंग समझकर पालन करना चाहिए।
ईश्वर की प्रार्थना : पंचतत्व समन्वित प्राकृतिक चिकित्सा- विज्ञान का मूलाधार तत्व है। प्राकृतिक के मूल साधन पंचतत्व- प्रकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी हैं। जिनकी ईश्वरी तत्व के बिना अपनी कोई सत्ता नहीं है।
संयम : रोगों को दूर करने में संयम और परहेज प्रमुख भूमिका निभाता है। असंयम से जिस प्रकार हमारा शरीर रोगों से ग्रस्त हो जाता है। उसी प्रकार रोगों से ग्रस्त होने पर यदि यदि संयमपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करें तो रोगों से शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है। इसलिए रोगियों को शीघ्र ही रोगमुक्त होने के लिए संयम का कठोरतापूर्वकर पालन करना चाहिए। इससे शरीर की जीवनीशक्ति को ताकत मिलती है और शरीर शीघ्र ही रोगों से मुक्त हो जाता है। एक कहावत प्रसिद्ध है कि `एक परहेज हजार दवा` अर्थात चिकित्सा का मंहगा से मंहगा इलाज भी रोगों को उस समय तक ठीक नहीं कर पाता है जब तक हम परहेज नहीं करते हैं। लगभग 95 प्रतिशत रोग केवल असंयम के कारण ही असाध्य बन जाते हैं।
सदाचरण : सदाचरण से हमारा शरीर और मन दोनों ही निर्मल और पवित्र होते हैं। सदाचार का बीजारोपण सदविचारों के क्षेत्र में होता है। सदाचारी व्यक्ति बहुत ही कम रोगों से ग्रस्त होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति दुराचार को अपनाये रहता है। यदि वह बीमार होता है तो विश्व की कोई भी चिकित्सा पद्धति या शक्ति उसे ठीक नहीं कर सकती है। बेबस हो जाना शरीर के अंदर एक शत्रु के पालन के समान होता है जो हमारे शरीर को अंदर ही अंदर घुन की भांति नष्ट करने में लगा होता है।
मन:शक्ति: रोगावस्था में रोगी की जिस प्रकार की भावना होती है इसके अनुरूप उसका रोग दूर होता है या बिगड़ता है क्योंकि मन की शक्ति अपरम्पार होती है। हमारे शरीर के मनोभाव शरीर में रोगोत्पत्ति के प्रमुख कारण होते हैं तथा वे ही एक रोग के लिए औषधि का भी कार्य करते हैं। वर्तमान समय में केवल आत्मनिर्देशों द्वारा ही असाध्य से असाध्य रोगों का उपचार किया जा सकता है जिसे ``मानसिक चिकित्सा`` के नाम से जाना जाता है। अत: प्रतिदिन रोगी को सुबह श्रद्धा और सच्चे मन से प्रार्थना करनी चाहिए कि उसे रोग से छुटकारा मिल जाए। ऐसा करने से कुछ ही दिनों में उसका रोग अवश्य ही नष्ट हो जाता है।
विश्राम : जब व्यक्ति किसी रोग से पीड़ित हो तो उसे तन और मन दोनों से पर्याप्त विश्राम करना चाहिए। जब शरीर में रोगों का प्रकोप होता है तो शरीर की जीवनीशक्ति रोग के विकारों को नष्ट करने में लग जाती है। इसलिए उससे अन्य कोई काम नहीं लेना चाहिए।
प्रसन्नता : रोगी व्यक्ति यदि खिन्नता को छोड़कर प्रसन्नता का आश्रय लेने लगे तो- उसी समय से रोग की दशा में सुधार आने लगता है। हमारे शरीर में अनेकों स्रावी ग्रंथियां होती हैं। जिनका स्राव शरीर के कार्य संचालन पर बहुत ही बड़ा प्रभाव डालता है। सामान्य अवस्था में इन ग्रंथियों से जो स्राव होता है, उनसे हमारे शरीर की सामान्य क्रियाएं संचालित होती रहती हैं किन्तु जब हम प्रसन्न होते हैं तो इन ग्रंथियों के स्राव में एक ऐसी अलौलिक विद्युतशक्ति का संचार हो जाता है। जिससे हमारे शरीर की समस्त क्रियाएं व्यवस्थित रूप से होने लगती हैं तथा शरीर के कोषों का लचीलापन जो उत्तम स्वास्थ्य की निशानी होता है पुन: स्थापित हो जाता है।
मनोरंजन : स्वस्थ लोगों की तुलना में रोगियों को मनोरंजन के साधनों की अधिक आवश्यकता होती है। मनोरंजन करने से रोगी का मन बहल जाता है। इसका उसके स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसलिए किसी भी रोग से पीड़ित व्यक्तियों का मनोरंजन करना चाहिए जिससे उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक हो जाता है।
गहरी नींद : अनिद्रा रोगी व्यक्तियों के लिए हानिकारक होती है। यदि किसी रोग से पीड़ित व्यक्ति को अच्छी नींद आती है तो उसका रोग जल्द ही ठीक हो जाता है। निद्रा सभी रोगों में लाभदायक सिद्ध होती है। इसलिए निद्रा को सभी रोगों की प्राकृतिकचिकित्सा माना जाता है। इसमें रोगी को आहार की जरूरत ही नहीं होती है। परन्तु रोगी के लिए नींद आवश्यकता ही नहीं बल्कि उसके लिए एक अच्छी औषधि भी होती है। इसलिए रोगी व्यक्तियों को प्रतिदिन कम से कम 8 से 10 घंटे की नींद अवश्य लेनी चाहिए। 

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